शब् से कब सहर हुई और
वोह ख़्वाब न जाने कहाँ गुज़र गया
सहर से कब शफक हुई और
वोह रोज़ न जाने कहाँ गुज़र गया
बहार से कब खिसां हुई और
वोह साल न जाने कहाँ गुज़र गया
शब्र की कब इन्तेहाँ हुई और
वोह करार न जाने कहाँ गुज़र गया
उस दिन भी जब बात चली तेरी आखों की और जा पहुँची पैमाने तक
तेरी उल्फत ने मुझे फिर खींच लिया शहर के उस मैखाने तक..
हिज्र के पल कब बदले सालों में, समझ न पाया साहिल समझाने से
संभलना था उसे ये मान कर, गुज़र गया साहिल हर पैमाने से..
-साहिल
gud one.. keep up the gud work..
ReplyDeleteRegards,
Vikash Agarwal
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