Thursday, September 8, 2011

बंद है आखें इसबार और सपने अधर से खाली...



बेसबर सुबह का इंतज़ार नहीं अब
ख्यालों की शफक है इतनी सारी,
बाँहों में लपेटे अरमानो को
याद आई वोह शाम न भुलाने वाली

खिल उठे फूल उन यादों की
कह गए भवरें कानो में बातें सारी
हवाओ में खुशबू ऐसी बहने लगी
तितलियाँ यादों की उड़ने लगी डाली डाली

ऐसी नींद में सोया हूँ, अब न जगाओ मुझे
बंद है आखें इसबार और सपने अधर से खाली
गुज़रे वक़्त के पन्ने पलट पलट कर
बुन रहा हूँ सपनो की चादर न्यारी
ओढ़ कर सो जाऊंगा उस चादर को
शायद फिर से जी सकूँ वोह वक़्त इस बारी

- साहिल 

1 comment:

  1. शायद फिर से जी सकूँ वोह वक़्त ...

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